Friday, June 1, 2012

चिकित्सा में विकल्प की आधारभूत आवश्यकता : भाग – २


चिकित्सा में विकल्प की आधारभूत आवश्यकता :  भाग  

कुछ ज्वलंत प्रश्न :

è चीनजापानकोरिया जैसे देशों ने अपनी-अपनी चिकित्सा पद्धतियों को आधुनिक स्वरुप दिया और आज वे एलोपैथी से बराबरी की टक्कर ले रहे हैं लेकिन हमारे देश की सारी सरकारें विदेश से आयातित महज एक चिकित्सा पद्धति को पूरी ताकत से इतने बड़े देश पर बेशर्मी से थोपती आ रही हैं व थोपे जा रही हैं |

è  क्या संविधान में केवल पाश्चात्य चिकित्सा या एलोपैथी की अनिवार्यता है ..

è क्या लोकतंत्र में जनता के द्वारा चुनी हुयी सरकार का यह दायित्व नहीं है कि वो महज काग़ज़ी योजनाओं  की रस्म-अदायगी करने के बजाय, आम जन के लिए सस्ती एवं वैकल्पिक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराये..! और ग़रीबमँहगाई से त्रस्त एवं अभावग्रस्त व्यक्ति को एक ही पद्धति से इलाज कराने के लिए ( किसी भी निहित स्वार्थ  के लिए ) बाध्य न करे |  

è  सरकार द्वारा संचालित मेडिकल काउन्सिल ऑफ़ इंडिया  ( MCI ) के द्वारा मान्यता प्राप्त महज ६-७ चिकित्सा पद्धतियाँ हैं इनके आलावा यदि  कोई व्यक्ति  अन्य किसी वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति के अंतर्गत चिकित्सा कार्य करता है तो  MCI  उस पर रोक तो नहीं लगा सकती लेकिन इस सर्वोच्च सेवा कार्य के लिए किसी प्रकार का सम्मान देना तो दूरउस पर इतने अंकुश और निषेधात्मक दिशा निर्देश जारी किये जाते हैं कि उसकी छवि  एक अपराधी जैसी बना दी जाती है |

è पूर्ण-रूपेण चिकित्सा कार्य में संलग्न एक व्यक्ति आपने नाम के आगे  'डॉक्टरनहीं लिख सकता..., विचित्र बात है..! क्योंकि उसकी पद्धति को  MCI  से मान्यता प्राप्त नहीं   है  फिलहाल यह मामला कोलकता उच्च न्यायलय में विचाराधीन है |

è ग़ौर करने लायक बात है -   पिछले चन्द दशकों मेंहमारे देश में सभी क्षेत्रों में पाश्चात्यीकरण की आयी जबरदस्त  आँधी ने भारतीय जन-मानस को एक तरह से आपने सम्मोहक जाल में बाँध लिया है 

è जिसकी वजह से शिक्षा व्यवसाय नौकरी इत्यादि सभी क्षेत्रों में प्रमाणीकरण ( Certification  ) का महत्त्व इतना बढ़ गया है कि उसके बिना कोई भी और कैसी भी प्रतिभा पूर्णतः बेमानी है |


è ऐसे में वैकल्पिक चिकित्सा वालों की योग्यता एवं अर्जित ज्ञान  किसी भी तथाकथित प्रमाणीकृत चिकित्सक की अपेक्षा कितना भी अधिक व्यापकव्यावहारिक,  इस देश की जीवन-शैली के अनुरूप व कितने ही गहरे अनुभव की  दीर्घ परंपरा से आया होलगता यही है कि वो  सब न सिर्फ बेमानी है बल्कि किसी मान्यता प्राप्त प्रमाणपत्र के अभाव में  झोला छाप डॉक्टर के झोले का हिस्सा बनकर रह जाता है और चिरस्थायी तौर पर एक संदिग्ध नज़रिए की विषय-वस्तु बना रहता है |

è दुर्भाग्यवश हमारा मीडिया भी वैकल्पिक  चिकित्सा के प्रति बेहद असंवेदनशील तथा पूर्वाग्रह से ग्रसित है |

कुछ संभावित कारगर सुझाव :

è चिकित्सा पद्धतियों को मान्यता देने का निर्धारण ( Criteria  ) उस पद्धति विशेष के अंतर्गत किये गए रोग / व्याधि विशेष अथवा अनेक व्याधियों के सफलसुरक्षित तथा सेहत-प्रदाता इलाज के परिणाम  के आधार पर किया जाये ( जिसको प्रमाणित करने के लिए कुछ सौ रोगियों की चिकित्सा का प्रमाण पर्याप्त होगा ) न कि उस पद्धति का अनुसरण करने वाले अनुयायियों की  संख्या ( जो लाखों में होनी आवश्यक है ) के आधार परजो कि वर्तमान में किसी भी नयी चिकित्सा पद्धति को मान्यता देने का प्रमुखतम आधार है |

è साथ हीसरकारी अनुदानों का वितरण भी विभिन्न बीमारियों की सफल-सुफल चिकित्सा की संख्या पर आधारित हो न कि किसी पद्धति के अनुयायियों की संख्या के आधार पर |

è चिकित्सा कार्य एक बेहद संवेदनशील यथा वैज्ञानिक कार्य प्रणाली है और इसमें कार्य-निष्पादन करते समय मरीज़ के स्वास्थ्य की सुरक्षा का भी ध्यान रखा जाना सर्वोच्च प्राथमिकता वाले कर्तव्यों में से एक है |  संयोगवशहमारी सरकारी प्रश्रय प्राप्त पद्धति इस मूल्यांकन में अन्य वैकल्पिक पद्धतियों के मुक़ाबले पूरी तरह से असफल रही है.. |

è ऐसे में किसी पद्धति को महज उसके बहुमत की संख्या के आधार पर सर्वश्रेष्ठ घोषित करना पूर्णतः अदूरदर्शितापूर्ण तथा अवैज्ञानिक नज़रिया ही है |

è वस्तुतः होना तो ये चाहिए कि चिकित्सकीय कार्य में किसी पद्धति के अनुयायियों का बहुमत नहीं वरनकिसी भी पद्धति विशेष के द्वारा निष्पादित सफलसुरक्षितअनिष्टकारीहानिकारक प्रतिक्रियाओं व पार्श्व प्रभावों से मुक्तसुफलविधायक स्वास्थ्य प्रदाता तथा व्याधियों को महज अस्थायी तौर पर शांत न करउनका पूर्णतः उन्मूलन करने वाला परिणामकारी इलाज ही प्रमुखतम आधार हो | 

è लिहाज़ासरकारी स्तर पर चिकित्सा सम्बन्धी कोई भी निर्णय लोकतान्त्रिक आधार के बजाय वैज्ञानिक दृष्टिकोण विवेकपूर्ण सामाजिक चेतना  तथा संवेदनशीलता  से परिपूर्ण तो ही इस दिशा में कुछ सृजनात्मक व सर्व-कल्याणकारी  ठोस कदम उठाये जा सकते हैं |

è कोई भी एक चिकित्सा पद्धति हजारों रोगों पर १०० प्रतिशत प्रभावीकारगर एवं परिणामकारी नहीं हो सकती इस स्थिति में विभिन्न पद्धतियों को उनकी ख़ूबियों - ख़ामियों को ध्यान में रखते हुएउनमें आपस में एक तालमेल बिठा  कर,  उन्हें यदि एक दूसरे की पूरक पद्धति बना कर एक नयी सुव्यवस्थित   समेकित ( Integrated  )  चिकित्सा पद्धति का विकास किया जाये तो हमारे देश  में एक ऐसा चिकित्सा ( पद्धति ) का तंत्र (System  ) खड़ा हो सकता है जिसकी मिसाल  समूचे विश्व में भी नहीं मिल सकेगी |


                 
सादर,
शेखर जेमिनी  

Thursday, May 31, 2012

चिकित्सा में विकल्प की आधारभूत आवश्यकता : भाग - १



चिकित्सा में विकल्प की आधारभूत आवश्यकता : 
 भाग -  

भारत के जन-मानस में व्याप्त दर्शन कहता है -
पहला सुख निरोगी काया '

इसी फ़लसफ़े  के मातहत भारत का आयुर्वेद और अष्टांग योग सम्पूर्ण विश्व में अपनी प्रभुता व प्रभाव बढ़ाता जा रहा है - सिवाय हमारी शासन व्यवस्था के |

अंग्रेज़ियत का भूत हमारे देश के आकाओं इस क़दर हावी है कि देश की तमाम खास-ओ-आम नीतियाँ - हमारी संस्कृति, परंपरा अथवा जीवनशैली, और सामान्य जन की आर्थिक, दैहिक एवं भौगोलिक स्थिति-परिस्थितियों को ताक पे रख कर बनाई जाती हैं | ना ही ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे नीतिकार सामान्यजन की दैनंदिन ज़रूरतों की बाबत अंशभर भी संवेदनशील हैं |

यही कारण है जिससे आज आधुनिक चिकित्सा पद्धति ( ऐलोपैथी ) के चिकित्सक देश में प्रचलित अन्य विभिन्न लोक-चिकित्सा पद्धतियों को अपना शत्रु मानने लगे हैं |

प्रश्न यह नहीं है कि कौन सी चिकित्सा पद्धति सही है ? प्रश्न यह है कि कौन सी चिकित्सा पद्धति आम आदमी तक सहज-सुलभ हो सकती है ?

आधुनिक चिकित्सा पद्धति अथवा एलोपैथी को सरकार भले ही आम आदमी की पद्धति कहे, लेकिन इस पद्धति के अंतर्गत चिकित्सकीय सेवाओं पर आने वाले खर्चों की कोई भी मिसाल देना श्रेयस्कर नहीं लगता क्योंकि सभी भुक्तभोगी हैं यह पद्धति तो आज श्रेणी विशेष की पद्धति बनती जा रही है ऐसे में किसी भी एक पद्धति के के भरोसे सवा -करोड़ लोगों को स्वस्थ नहीं रखा जा सकता तबजबकि  हमारा देश बड़ा होते हुए भी आर्थिक दृष्टि से पश्चिमी देशों की तरह संपन्न भी नहीं है |

आज वैकल्पिक चिकित्सा का क्षेत्र भी बहुत व्यापक और विज्ञानोंमुख होता जा तरह है देशज स्तर भी अनेक प्रकार के शोध - प्रयोग बेहद सफ़लसुफल तथा परिणामकारी साबित हुए हैं |  लेकिन यहाँहमारे देश में उनको न सिर्फ हेय दृष्टि से देखा जाता है बल्कि उन्हें झोला छाप डॉक्टर की उपाधि देकर उनका माखौल उड़ाया जाता है उनका दोष केवल इतना है की न तो उनके पास सरकारी मान्यता प्राप्त पद्धति की कोई सनद है  और न ही अपनी पद्धति के अंतर्गत रहते हुएसरकार की घोर पक्षपाती नीतियों के कारणअपनी पद्धति के लिए किसी भी प्रकार की सरकारी मान्यता को प्राप्त करने की संभावना ...|

कहने को तो हमारे देश में आयुर्वेद चिकित्सा सदियों से प्रचलन में हैपरन्तु सरकार व सरकार में बैठे नीति-निर्धारक इस बेश्कीमती चिकित्सा पद्धति के प्रति पूरी तरह से उदासीन दिखाई पड़ते हैं | वे भारतीय रसोई में सहज उपलब्ध सामग्री और हज़ारों वर्षों   के अर्जित जड़ी-बूटियों के ज्ञान के उपयोग की पूर्णतः उपेक्षा करते हैं | जब सरकार का आयुर्वेद के ही विकास के प्रति इतना उदासीन रवैया है तो अन्य सैकड़ों लोक चिकित्सा पद्धतियों की शिक्षाशोधप्रशिक्षण तथा व्यावसायीकरण की व्यवस्था की अपेक्षा कौन और किससे करे...?

क्या कारण है,  वो कौन सी बुनियादी बात है कि हमारी सरकारें आधुनिक चिकित्सा को इतना बढ़ावा देती आयी हैं और निरंतर  दे रही हैं..?

कारण बड़ा सीधा सा है जो  एक आम आदमी के भी समझ में आ जाता है - हमारे देश में इलाज पर होने वाला औसत खर्च आम आदमी के मासिक बजट का २० से ३५ प्रतिशत तक आ जाता हैइसी के चलते देश में चिकित्सा आज तीन सबसे बड़े उद्योगों में से एक बन गयी है  

शिक्षा,  दवा - खरीद व मूल्य, जाँच ( Pathological  Tests ), शल्य-चिकित्सा ( Surgical Operation ), ( जो अधिकांशतः सर्वथा अनावश्यक  तथा मुसीबत के मारे  मरीजों पर चिकित्सकों द्वारा अपने स्वार्थपूर्ति के लिए आरोपित की जाती है ),  इत्यादि सभी के रास्ते कुबेर के घर जाकर ख़त्म होते हैं | और स्वयं कुबेर, सरकार के चरणों में भेंट-पुष्प चढ़ाने अपने हाथ बांध कर खड़ा रहता है | यहाँ तक कि शोध ( Research  & Development  ) पर भी चिकित्सा के क्षेत्र में ९० प्रतिशत से अधिक बोगस खर्चा किया जाता है |

इतना पैसा, और अकल्पनीय मुनाफ़ा... शायद ही किसी अन्य उद्योग में उत्पादन मूल्य तथा विक्रय मूल्य में हजारों गुने का अंतर मिलता हो...!

अमेरिका एक स्वाइन फ्लू '  प्रयोगशाला में पैदा करके हमारे यहाँ भेज देता है और हमारी सरकार पूर्णतः अदूरदर्शिता का प्रदर्शन करते हुए उसके इलाज के लिए बेहद मँहगी दवाओं का ज़खीरा खरीद कर अमेरिका को मंदी  से उबार लेती है इतनी भारी मात्रा में दवाओं की  खरीद... देश के प्रत्येक  नागरिक का ६ - ७ बार इलाज किया जा सके... ये कैसी  लोक-सेवा है...?

दूसरी तरफ़ देश की दल-दल में लाखों प्रतिभा संपन्न कमल खिले हुए हैं और न सिर्फ स्वाइन फ्लूबर्ड फ्लू आदि जैसी उत्पादित  आफतों को बल्कि तथाकथित असाध्य बीमारियों को भी समूल नष्ट का माद्दा रखते हैं | 

लेकिन हमारी सरकार न गूंगी  है,  न अंधी है और न ही बहरी है |  वोऔर उसमें बैठे हमारे देश के नीति-निर्धारक आका सिर्फ अपने हित को देखते हैंअपने हित की सुनते हैं और सिर्फ अपने हित की बाबत बोलते हैं...|

क्रमशः

Friday, May 11, 2012

चित्कित्सा में विकल्प : प्रतिवेदन - (२)




" मनोज कुमार जी ने जो उदाहरण दिया है उस केस में कैंसर रहा ही नहीं होगा । जगह जगह दिखाने से न निदान होता है न उपचार जब तक आप सही जगह न जाएँ ।
वर्ना यहाँ तो कितने ही कृपालु बाबा मिल जायेंगे । "

यहाँ मनोज कुमार जी की टिप्पणी को दिखाना प्रासंगिक होगा |

" बहुत सही प्रश्न उठाया है आपने। कौन सी दवा लोगों को सुलभ है।
एक दो वाकया शेयर करने का मन कर गया।

चंडीगढ़ में था। मेरे एक मित्र के पिता को गले का कैन्सर था। कई जगह इलाज करवा चुके थे। एक जगह से मालूम हुआ कि हिमाचल के पहाड़ों पर रहने वाले कुछ लोग एक प्रकार की जड़ी देते हैं जिसकी जड़ को कूट कर पीने से कैन्सर ठीक होने की संभावना बढ़ जाती है। मित्र के पिता को वह दिया गया वे बच गए। जो लोग वह जड़ी बूटी देते थे कोई पैसा आदि नहीं लेते।

गंगा राम में मेरे पिता के कैन्सर का ट्रीट्मेंट हो रहा था। केमोथेरापी के नाम पर जो दवा वे दे रहे थे उसका दाम बाइस हजार रुपए थी। मैंने डॉक्टर से कहा था कि मैं तो क़र्ज़ लेकर भी इनके लिए इतनी कीमती दवा दे पा रहा हूं। महीने में आप पांच ईजेक्शन दे चुके हैं। ग़रीब कहां से लाएगा। जब होस्पिटल ने रिलिज कर दिया उसके दो महीने के भीतर वे गुजर गए। "

एक डॉक्टर के तरफ से आया यह वक्तव्य अचंभित कर गया कि," मनोज कुमार जी ने जो उदाहरण दिया है उस केस में कैंसर रहा ही नहीं होगा  |"

इस वक्तव्य से बहुत कुछ प्रकट होता है :

è        किसी पद्धति विशेष में इतनी अंध श्रद्धासोच की ऐसी एकांगी पराकाष्ठा कि उस पद्धति    विशेष के अतिरिक्त अन्य कहीं भी किसी भी तरह से सफल उपचार संभव ही नहीं है |

è         और यदि कोई ऐसा दावा या महज सूचना भी देता है कि अन्य कहीं भी कोई व्यक्ति या  पद्धति किसी ( महत्वपूर्ण व सम्मानित ..? ) व्याधि का सफलता पूर्वक उपचार कर रही है तो हम बिना किसी व्यावहारिक जाँच केउसे सिरे से ही नकार देंगे कि जिस मर्ज़ का उपचार हुआ वोकैंसर जैसी महत्वपूर्ण व्याधि नहीं रही होगी ...कोई साधारण सी बीमारी रही होगी...|


è यहाँ कैंसर जैसी व्याधियों की  प्राथमिक जाँच प्रक्रिया पर भी थोड़ा ग़ौर फरमायें 

è          क्या  कोई मरीज़  स्वयं ही यह निर्धारित करता है  कि उसे कैंसर है ?

è         या फिर उसे कोई बताता है कि वो फलाँ बीमारी से ग्रसित है ?

è        और कैंसर जैसी भीषण ( महत्वपूर्ण व सम्मानित ) व्याधियों का निर्धारण आज के दौर  में किस पद्धति के अंतर्गत किया जाता है ?

è       ज़ाहिर है यह काम मरीज़ के द्वारा नहीं बल्कि पैथोलोजिकल लैब्स के द्वारा निष्पादित   होता है |

è       फिर बिना यह पूछे कि क्या गले के कैंसर का निर्धारण पैथोलोजिकल लैब के द्वारा हुआ था या नहींपहले से ही यह वक्तव्य कि "कैंसर रहा ही नहीं होगा" पद्धति विशेष कि प्रति अवैज्ञानिक और अयाव्हारिक प्रतिबद्धताअथवा कोई राजनैतिक समीकरणया फिर उस पद्धति विशेष के सेनापति होने का मिथ्या अहंकार ही प्रदर्शित करता है |

è      या फिर यह उदघोषणा कि कैंसर जैसी लाइलाज व असाध्य बीमारियों का इलाज दुनिया में हमारे अलावा और कोई  कर ही नहीं सकता... गोया कि बीमारियाँ न हुईंइनकी बपौती हो गयीं...! 


è  ऐलोपैथिक चिकित्सकों का यह मिथ्यापूर्ण अति-विश्वासअतिरंजित आडम्बर से भरा संवेदनशून्य व्यवहार और आयातित अहंकार ही इस चित्कित्सा पद्धति के पतन का कारण बनेगा...!

" गंगा राम में मेरे पिता के कैन्सर का ट्रीट्मेंट हो रहा था। केमोथेरापी के नाम पर जो दवा वे दे रहे थे उसका दाम बाइस हजार रुपए थी। मैंने डॉक्टर से कहा था कि मैं तो क़र्ज़ लेकर भी इनके लिए इतनी कीमती दवा दे पा रहा हूं। महीने में आप पांच ईजेक्शन दे चुके हैं। ग़रीब कहां से लाएगा। जब होस्पिटल ने रिलिज कर दिया उसके दो महीने के भीतर वे गुजर गए। "

यह अनुभव अकेले मनोज कुमार जी का नहीं है सैकड़ों नहीं हजारों नहीं बल्कि लाखों लोगों के साथ इसी प्रकार के हादसे हुए है हो रहे हैं और हमारे तथाकथित कैंसर विशेषज्ञ ( oncologist  )  ' पूरी निष्ठा  के साथ ग़रीब - जन को चौतरफा  मार दे  रहे  हैं यथा –

è         इलाज के नाम पर उत्पादक मूल्य की तुलना में हज़ारों  गुने मुनाफे के साथ आर्थिक मार व  शोषण...!


è     पूर्णतया असंवैधानिक ग़ैर-क़ानूनी  एवं सर्वथा अनैतिक मानवीय मूल्यों व  संवेदनहीन तौर- तरीकों से मरीज़ों को धोखा देते हुएपूरी तरह से अनभिज्ञ रखते हुएआयातित दवाओं का इलाज व उपचार के नाम पर नैदानिक परीक्षण  ( Clinical  Trial )  करना |

è         इन खतरनाक दवाओं के हानिकारक प्रभावों पार्श्व व दूरगामी  परिणामों सम्पूर्ण स्वास्थ्य पर होने वाले दीर्घ कालीन नकारात्मक प्रभावों / परिणामों से मरीज़ों को या तो पूर्णतः अनभिज्ञ  रखना अथवा उन्हें समूची समुचित  जानकारी नहीं  देना या अधिकांश मामलों में उन्हें सर्वथा ग़लत जानकारी के साथ झूठे आश्वासन देना |

è       परिणामतः,  उन्हें अक्सर और अधिक स्वास्थ्य विभीषिका की ओर धकेल कर अनागत मृत्यु को आसन्न बना देना |

è      और विस्तृत अर्थों में - ( आर्थिक शारीरिक भावात्मक तथा बिन मांगे इच्छा मृत्यु का जामा पहना कर ) मोक्ष दिलाना |

 जगह जगह दिखाने से न निदान होता है न उपचार जब तक आप सही जगह न जाएँ ।
वर्ना यहाँ तो कितने ही कृपालु बाबा मिल जायेंगे । "

è      और यदि  ( ज़ाहिरा तौर पर )  सही जगह '   जाने से भी विधायक स्वास्थ्य प्रदाता निदान उपचार अथवा इलाज न मिले तो ?

è       क्या  बीमारी हालात और मजबूरी का मारा मरीज़ उस तथाकथित सही जगह पर ही एक बेहद मँहगी असामयिक मृत्यु  की प्रतीक्षा करता रहे ?

è      अथवा आयातित नयीविकसित तथा बेहतर दवा के नाम पर निदानात्मक परीक्षण के लिए ख़ुद को बलि का बकरा ( Guinea  Pig  ) बनने दे ?

 वर्ना यहाँ तो कितने ही कृपालु बाबा मिल जायेंगे । "

è   क्या मान्यता प्राप्त विशेषकर एक पद्धति विशेष के अलावा देश में अन्य जितनी भी वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियाँ और उनके चिकित्सक हैंवे सभी कृपालु बाबा जैसे सम्बोधनों के अधिकारी हैं 

è      यह कैसी मानसिक ग़ुलामी की गिरफ्त में आ गए  हमारी मौजूदा चिकित्सा की मुख्य धारा के चिकित्सक...?

è        यह कैसी विडम्बना है,  कैसा दुष्ट सम्मोहन है कि हमारे अपनेअपनी ही सर्वोत्कृष्ट धरोहर को कोसने लगे हैंगालियाँ देने लगे हैं और शत्रुता का भाव रखने लगे हैं...?


शेखर जेमिनी
अगले सन्देश में जारी...

Tuesday, May 8, 2012

चित्कित्सा में विकल्प : प्रतिवेदन - ( १ )


चित्कित्सा में विकल्प... कुछ स्पष्टीकरण एवं विज्ञ जनों द्वारा की गयी टिप्पड़ियों पर सधन्यवाद प्रतिवेदन : ( १ )

सर्व प्रथम डॉ. टी. एस. दाराल साहेब को नमन...! वे कुछ ऐसा लिख देते हैं कि प्रतिवेदन देना
आवश्यक हो जाता जाता है उन्ही के वक्तव्य से बात शुरू करते हैं |

" सरकार को दोष देना सही नहीं । सरकार ने आयुष के नाम से जो योजना चलाई है उसके अंतर्गत सभी बड़े अस्पतालों में आयुर्वेदिक यूनानी और होमिओपेथिक क्लिनिक्स खोली जा रही हैं । "

अपने ही वक्तव्य से उद्धृत :
" क्या लोकतंत्र में जनता के द्वारा चुनी हुयी सरकार का यह दायित्व नहीं है कि वो महज काग़ज़ी योजनाओं  की रस्म-अदायगी करने के बजायआम जन के लिए सस्ती एवं वैकल्पिक स्वास्थ्य सेवाएं भी उपलब्ध कराये..! "

इन योजनाओं का लाभ कितना-किसे पहुंचा है यह हर कोई जानता है और इस विषय पर किसी को शायद ही कोई संदेह हो...! योजना बनाकर खाना-पूर्ति करना एक बात है और किसी पद्धति विशेष को प्रश्रय देकर हर जायज-नाजायज तरीके से बढ़ावा देना दूसरी बात है काश इस बढ़ावे का एक-दो  प्रतिशत भी यदि अन्य चिकित्सा पद्धतियों को मिल जाये तो आने वाले १० वर्षों में हमारा देश चिकित्सा के क्षेत्र में विश्व में न सिर्फ सर्वोपरि होगा बल्कि यहाँ की समेकित चिकित्सा का दुनिया के किसी देश के पास कोई विकल्प भी नहीं होगा |

" चिकित्सा के क्षेत्र में बिना मान्यता प्राप्त उपचार करना तो क्वेकरी ही कहलाएगा । नियम कानून भले के लिए ही बनाये जाते हैं ।"

जीबज़ा फ़रमाया - नियम कानून तो समाज देश व लोगों  के भले के ही लिए बनाये जाते हैं | '  लेकिन उनका सही जानकारी के साथ सही परिप्रेक्ष्य  में संदर्भित होना भी उतना ही आवश्यक है |

" चिकित्सा के क्षेत्र में बिना मान्यता प्राप्त उपचार करना तो क्वेकरी ही कहलाएगा ।"

यह वक्तव्य अपूर्ण है जिससे सामान्य-जन के मन में  बहुत बड़े भ्रम पैदा हुए हैंऔर पूरी तरह से ग़लत अवधारणाओं का प्रचार-प्रसार हुआ है |

सही बात तो यह है कि चिकित्सा के क्षेत्र में सरकारी मान्यता प्राप्त चिकित्सा पद्धति के अंतर्गत शैक्षणिक योग्यता का प्रमाणपत्र लिए बिना उस पद्धति विशेष की चिकित्सा व्यवस्था का उपयोग करते हुए चिकित्सा कार्य करना क्वेकरी है और ग़ैर-क़ानूनी भी...!

लेकिन किसी भी मान्यता प्राप्त चिकित्सा पद्धति के अलावा अन्य किसी भी ग़ैर मान्यता प्राप्त  वैकल्पिक अथवा लोक-चिकित्सा पद्धति के अंतर्गत सुरक्षित एवं सफल चिकित्सा कार्य करना न कानून-विरुद्ध है और न ही इसे क्वेकरी या नीम-हकीमी का दर्ज़ा दिया जा सकता है |

फिर नीम-हकीमी ' ( क्वेकरी Quackery  ) किसे कहेंगे...?

नीम-हकीमी ( क्वेकरी Quackery  ) को २ हिस्सों में बाँटें तो पहले हिस्से को संक्रमण नीम-हकीमी तथा दूसरे को विशुद्ध नीम-हकीमी कह सकते हैं |


संक्रमण नीम-हकीमी :

यह तुलनात्मक रूप से कम ख़तरनाक नीम-हकीमी होती है इसके अंतर्गत चिकित्सा करने वालों के पास किसी न किसी चिकित्सा पद्धति का बुनियादी एवं आवश्यक ज्ञान होता है अधिकांश मामलों में वे किसी न किस पद्धति विशेष के मान्यता प्राप्त चिकित्सक भी होते हैं लेकिन अपनी पद्धति से इतरअक्सर वे अन्य मान्यता प्राप्त चिकित्सा पद्धतियों की औषधियों का अनधिकृत व अवैधानिक उपयोग ( अथवा दुरूपयोग ) अपने चिकित्सा कार्य के दौरान करते पाए जाते हैं इस अनधिकृत व अवैधानिक उपयोग ( अथवा दुरूपयोग )  में रोगियों को औषधियों का नुस्खा देने से लेकर औषधियों को सीधे या अन्य औषधियों में मिला कर देना शामिल है |

उदहारण के लिए - हमारे देश में आयुर्वेद पद्धति के लगभग सभी स्नातक चिकित्सक एलोपैथी की औषधियों का धड़ल्ले से इस्तेमाल करते हैं इसी प्रकार बहुत सारे एलोपैथिक चिकित्सक भी अब विशेष मामलों में स्वयं ही होम्योपैथिक दवाएँ देने लगे हैं या उनको लेने की अनधिकृत सलाह देते हैं |

यह संक्रमण नीम-हकीमी का सटीक उदहारण है |


शुद्ध या विशुद्ध नीम-हकीमी –

 यही क्वेकरी या नीम-हकीमी का वो प्रकार है जिसकी बाबत कहा जाता है :" नीम-हाकिम खतरा-ए-जान " |    ये समाज के लिए घातक खतरनाक और चिकित्सा के नाम पर एक तरह का आतंक फ़ैलाने वाले वो लोग हैं जिन्हें चिकित्सा जगत का सबसे बड़ा दुश्मन कहा जाये तो भी अतिश्योक्ति नहीं होगी |

इन लोगों के पास न तो किसी मान्यता प्राप्त चिकित्सा पद्धति का व्यवस्थित - शैक्षणिक ज्ञान होता हैन कोई डिग्री या सनद और न ही किसी अन्य वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति की दीर्घ परंपरा के ज्ञान का वस्तुगत आधार |

ये ही वो लोग हैं जो अपनी सुविधानुसार लगभग सभी चिकित्सा पद्धतियों - मुख्यतः ऐलिपैथीकी दवाओं का हर प्रकार से ग़ैर-क़ानूनीअनधिकृत और पूरी तरह से अविवेकपूर्ण एवं खतरनाक ढंग से दुरुपयोग करते हैं |

ये ही असली क्वेकर्स हैंअसली नीम-हाकिम हैंअसली झोला-छाप डॉक्टर हैंबिलकुल विशुद्ध क्वेकर्स ...!

ये न सिर्फ चिकित्सा जगत के बल्कि पूरे समाज व देश के सबसे बड़े अपराधी हैं और इन्हें आतंककारियों का ही दर्ज़ा दिया जाना चाहिए  |   
                
चिकित्सकों की एक तीसरी श्रेणी भी है जिन्हें भूलवश नीम-हाकिम ही मान लिया जाता है, क्योंकि उनके पास भी किसी मान्यता प्राप्त चिकित्सा पद्धति की कोई डिग्री या सनद नहीं होती |
लेकिन क्योंकि वे अपने चिकित्सा कार्य में किसी भी मान्यता प्राप्त चिकित्सा पद्धति की औषधियों का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में प्रयोग-उपयोग नहीं करते हैं इसलिए न ही उन्हे क्वेकर या नीम-हाकिम कहा जाना चाहिए और न ही वे किसी भी रूप में अपराधी हैं |

उनके पास मान्यता प्राप्त सनद का न होना उन्हें अपराधी नहीं बनाता,  जैसा कि आमतौर  पर लोग ऐसी धारणा बना लेते हैं वास्तविकता ये है कि कानूनन किसी भी मान्यता प्राप्त चिकित्सा पद्धति के अनुशासन  में चिकित्सा कार्य करने  के लिए उस पद्धति विशेष का वैध प्रमाण-पत्र होना अनिवार्य एवं   परमावश्यक है |

लेकिन, मेरे देखे , यदि कोई व्यक्ति मान्यता प्राप्त चिकित्सा पद्धतियों  से अलग अपनी स्वयं की अथवा लोक चिकित्सा - परंपरा की औषधियों से निरापद तथा परिणामकारी चिकित्सा कार्य करता है तो वह किसी भी अन्य मान्यता प्राप्त डिग्रीधारी चिकित्सक के समकक्ष ही सम्मान का अधिकारी होना चाहिए |

क्योंकि ये ही वो चिकित्सक है जो इस देश की हज़ारों वर्ष पुरानी अनेकों लोक-चिकित्सा पद्धतियों के समृद्ध ज्ञान की दीर्घ परंपरा को अक्षुण रखे हुए हैं उसके संवाहक बनकर उसे जीवित  और जीवंत बनाये हुए हैं मैं व्यक्तिगत स्तर  पर उनका ह्रदय से अभिनन्दन करता हूँ नमन करता हूँ |

चिकित्सकों के इसी वर्ग में वे लोग भी आते है जिन्होंने अपने ही शोध कार्य से विभिन्न व्याधियों के निवारण हेतु सर्वथा नयी औषधियों की खोज की है अथवा एक नयी चिकित्सा पद्धति - प्रणाली ही इजाद कर ली है |


( बंधुगण,  इस नाचीज़ को चिकित्सकों की उपरोक्त अंतिम श्रेणी का सदस्य मान सकते है...)

( अगले सन्देश में जारी...!)

Sunday, May 6, 2012

चिकित्सा में विकल्प की आधारभूत आवश्यकता : भाग – २


चिकित्सा में विकल्प की आधारभूत आवश्यकता :  भाग  

कुछ ज्वलंत प्रश्न :

è चीनजापानकोरिया जैसे देशों ने अपनी-अपनी चिकित्सा पद्धतियों को आधुनिक स्वरुप दिया और आज वे एलोपैथी से बराबरी की टक्कर ले रहे हैं लेकिन हमारे देश की सारी सरकारें विदेश से आयातित महज एक चिकित्सा पद्धति को पूरी ताकत से इतने बड़े देश पर बेशर्मी से थोपती आ रही हैं व थोपे जा रही हैं |

è  क्या संविधान में केवल पाश्चात्य चिकित्सा या एलोपैथी की अनिवार्यता है ..

è क्या लोकतंत्र में जनता के द्वारा चुनी हुयी सरकार का यह दायित्व नहीं है कि वो महज काग़ज़ी योजनाओं  की रस्म-अदायगी करने के बजाय, आम जन के लिए सस्ती एवं वैकल्पिक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराये..! और ग़रीबमँहगाई से त्रस्त एवं अभावग्रस्त व्यक्ति को एक ही पद्धति से इलाज कराने के लिए ( किसी भी निहित स्वार्थ  के लिए ) बाध्य न करे |  

è  सरकार द्वारा संचालित मेडिकल काउन्सिल ऑफ़ इंडिया  ( MCI ) के द्वारा मान्यता प्राप्त महज ६-७ चिकित्सा पद्धतियाँ हैं इनके आलावा यदि  कोई व्यक्ति  अन्य किसी वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति के अंतर्गत चिकित्सा कार्य करता है तो  MCI  उस पर रोक तो नहीं लगा सकती लेकिन इस सर्वोच्च सेवा कार्य के लिए किसी प्रकार का सम्मान देना तो दूरउस पर इतने अंकुश और निषेधात्मक दिशा निर्देश जारी किये जाते हैं कि उसकी छवि  एक अपराधी जैसी बना दी जाती है |

è पूर्ण-रूपेण चिकित्सा कार्य में संलग्न एक व्यक्ति आपने नाम के आगे  'डॉक्टर' नहीं लिख सकता..., विचित्र बात है..! क्योंकि उसकी पद्धति को  MCI  से मान्यता प्राप्त नहीं   है  फिलहाल यह मामला कोलकता उच्च न्यायलय में विचाराधीन है |

è ग़ौर करने लायक बात है -   पिछले चन्द दशकों मेंहमारे देश में सभी क्षेत्रों में पाश्चात्यीकरण की आयी जबरदस्त  आँधी ने भारतीय जन-मानस को एक तरह से आपने सम्मोहक जाल में बाँध लिया है 

è जिसकी वजह से शिक्षा व्यवसाय नौकरी इत्यादि सभी क्षेत्रों में प्रमाणीकरण ( Certification  ) का महत्त्व इतना बढ़ गया है कि उसके बिना कोई भी और कैसी भी प्रतिभा पूर्णतः बेमानी है |


è ऐसे में वैकल्पिक चिकित्सा वालों की योग्यता एवं अर्जित ज्ञान  किसी भी तथाकथित प्रमाणीकृत चिकित्सक की अपेक्षा कितना भी अधिक व्यापकव्यावहारिक,  इस देश की जीवन-शैली के अनुरूप व कितने ही गहरे अनुभव की  दीर्घ परंपरा से आया होलगता यही है कि वो  सब न सिर्फ बेमानी है बल्कि किसी मान्यता प्राप्त प्रमाणपत्र के अभाव में  झोला छाप डॉक्टर के झोले का हिस्सा बनकर रह जाता है और चिरस्थायी तौर पर एक संदिग्ध नज़रिए की विषय-वस्तु बना रहता है |

è दुर्भाग्यवश हमारा मीडिया भी वैकल्पिक  चिकित्सा के प्रति बेहद असंवेदनशील तथा पूर्वाग्रह से ग्रसित है |

कुछ संभावित कारगर सुझाव :

è चिकित्सा पद्धतियों को मान्यता देने का निर्धारण ( Criteria  ) उस पद्धति विशेष के अंतर्गत किये गए रोग / व्याधि विशेष अथवा अनेक व्याधियों के सफलसुरक्षित तथा सेहत-प्रदाता इलाज के परिणाम  के आधार पर किया जाये ( जिसको प्रमाणित करने के लिए कुछ सौ रोगियों की चिकित्सा का प्रमाण पर्याप्त होगा ) न कि उस पद्धति का अनुसरण करने वाले अनुयायियों की  संख्या ( जो लाखों में होनी आवश्यक है ) के आधार परजो कि वर्तमान में किसी भी नयी चिकित्सा पद्धति को मान्यता देने का प्रमुखतम आधार है |

è साथ ही, सरकारी अनुदानों का वितरण भी विभिन्न बीमारियों की सफल-सुफल चिकित्सा की संख्या पर आधारित हो न कि किसी पद्धति के अनुयायियों की संख्या के आधार पर |

è चिकित्सा कार्य एक बेहद संवेदनशील यथा वैज्ञानिक कार्य प्रणाली है और इसमें कार्य-निष्पादन करते समय मरीज़ के स्वास्थ्य की सुरक्षा का भी ध्यान रखा जाना सर्वोच्च प्राथमिकता वाले कर्तव्यों में से एक है |  संयोगवशहमारी सरकारी प्रश्रय प्राप्त पद्धति इस मूल्यांकन में अन्य वैकल्पिक पद्धतियों के मुक़ाबले पूरी तरह से असफल रही है.. |

è ऐसे में किसी पद्धति को महज उसके बहुमत की संख्या के आधार पर सर्वश्रेष्ठ घोषित करना पूर्णतः अदूरदर्शितापूर्ण तथा अवैज्ञानिक नज़रिया ही है |

è वस्तुतः होना तो ये चाहिए कि चिकित्सकीय कार्य में किसी पद्धति के अनुयायियों का बहुमत नहीं वरनकिसी भी पद्धति विशेष के द्वारा निष्पादित सफलसुरक्षितअनिष्टकारीहानिकारक प्रतिक्रियाओं व पार्श्व प्रभावों से मुक्तसुफलविधायक स्वास्थ्य प्रदाता तथा व्याधियों को महज अस्थायी तौर पर शांत न करउनका पूर्णतः उन्मूलन करने वाला परिणामकारी इलाज ही प्रमुखतम आधार हो | 

è लिहाज़ासरकारी स्तर पर चिकित्सा सम्बन्धी कोई भी निर्णय लोकतान्त्रिक आधार के बजाय वैज्ञानिक दृष्टिकोण विवेकपूर्ण सामाजिक चेतना  तथा संवेदनशीलता  से परिपूर्ण तो ही इस दिशा में कुछ सृजनात्मक व सर्व-कल्याणकारी  ठोस कदम उठाये जा सकते हैं |

è कोई भी एक चिकित्सा पद्धति हजारों रोगों पर १०० प्रतिशत प्रभावीकारगर एवं परिणामकारी नहीं हो सकती इस स्थिति में विभिन्न पद्धतियों को उनकी ख़ूबियों - ख़ामियों को ध्यान में रखते हुएउनमें आपस में एक तालमेल बिठा  कर,  उन्हें यदि एक दूसरे की पूरक पद्धति बना कर एक नयी सुव्यवस्थित   समेकित ( Integrated  )  चिकित्सा पद्धति का विकास किया जाये तो हमारे देश  में एक ऐसा चिकित्सा ( पद्धति ) का तंत्र (System  ) खड़ा हो सकता है जिसकी मिसाल  समूचे विश्व में भी नहीं मिल सकेगी |


                 
सादर,
शेखर जेमिनी