Sunday, April 22, 2012

कोणार्क सम्पूर्ण चिकित्सा तंत्र -- भाग तीन

कोणार्क सम्पूर्ण चिकित्सा तंत्र -- भाग तीन

डॉ. दाराल और शेखर जी के बीच का संवाद बड़ा ही रोचक बन पड़ा है, अतः मुझे यही उचित लगा कि इस संवाद श्रंखला को भाग --तीन के रूप में " ज्यों की त्यों धरी दीन्हीं चदरिया " वाले अंदाज़ में प्रस्तुत  कर दू जिससे अन्य गुणी जन भी लाभान्वित हो सकेंगे |

वीरेंद्र शर्मा
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       डॉ टी एस दराल ने कहा
seems to be unrealistic.
18 अप्रैल 2012 5:05 am
            THE HEALER ने कहा

Dr. T.S. Daral,



 " seems to be unrealistic." 



Thanks for being skeptical... 



I would have commented the same as yours, had I been one of the readers, like you.


But I would appreciate more if you could be more specific in your skeptical areas...

I don't say that I would convince you but surely I would try my best to be most honest, realistic and factual also, as well.

Thanks again for your interest shown.

Regards,
SHEKHAR GEMINI
18 अप्रैल 2012 8:26 am
ब्लॉगर            डॉ टी एस दराल ने कहा

वीरुभाई जी , इस विषय में तर्क वितर्क में पड़ना शायद उचित नहीं होगा . हमारा देश ही श्रद्धा , विश्वास और भक्ति भावना पर चल रहा है . लेकिन फेथ हीलिंग में हम तो विश्वास नहीं कर सकते . यहाँ बताये गए रोगों के तीन कारण तो सही हैं . लेकिन अनुवांशिक / जेनेटिक defects को कैसे सही किया जा सकता है , यह मेरी समझ से बाहर है . 

संक्रमण के लिए एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल ज़रूरी है वर्ना यह लाइफ threatning हो सकता है . ऐसी स्थिति में किसी को यह सलाह नहीं दी जा सकती की वह कोई विकल्प का सहारा ले . 



लाईफ स्टाईल मोडिफिकेशन तो सबके लिए ज़रूरी है . लेकिन यह बस स्वस्थ रहने में सहायक होता है , उपचार नहीं . बताये गए अधिकतर रोगों को कंट्रोल तो किया जा सकता है लेकिन उल्मूलन नहीं . कुछ रोग सेल्फ लिमिटिंग होते हैं , कुछ सायकोलोजिकल , कुछ खाली मन का वहम . 

अंत में यही कह सकता हूँ --गुड़ ना दे , गुड़ जैसी बात तो करे . लेकिन अफ़सोस स्वास्थ्य के मामले में यह कहावत फिट नहीं बैठती . 
पता नहीं ये पोस्ट आपने क्यों लिखी ! 
कृपया अन्यथा न लें . न ही शेखर जी से कोई शिकायत है .
20 अप्रैल 2012 11:09 pm
 हटाएं
SHEKHAR GEMINI ने कहा 
डॉ टी एस दराल क़ी सेवा में प्रस्तुत सादर
प्रतिवेदन :

n  इस विषय में तर्क वितर्क में पड़ना शायद उचित नहीं होगा हमारा देश ही श्रद्धा, विश्वास और भक्ति भावना पर चल रहा है. लेकिन फेथ हीलिंग में हम तो विश्वास नहीं कर सकते.” 

è  बिलकुल सही कहा जनाब ने... ' फेथहीलिंग ' या ' प्लेसिबो इफेक्ट ' को चिकित्सा  पद्धति का दर्ज़ा   नहीं दिया जा सकता... हाँ, ये मरीज़ की  हौसला-अफ़ज़ाई के लिए अच्छे हैं |

n  लेकिन अनुवांशिक / जेनेटिक defects को कैसे सही किया जा सकता है, यह मेरी समझ से बाहर है.

è  हुज़ूर को याद दिला दूँ कि आज जेनेटिक्स पर सर्वाधिक शोध-कार्य चल रहा है और जेनेटिक-कोड के साथ ख़ासी छेड़खानी भी क़ी जा रही है | इस नाचीज़ ने भी इस दिशा में कुछ ठोस उपलब्धि हासिल कर ली है, इसमें आपत्ति-जनक क्या है...?

क्या समस्त शोध-कार्य अमेरिका व पश्चिमी जगत पर जाकर समाप्त हो जाते हैं..?

ऐसा क्यूँ है कि हमारी खोजों पर संदेह करने का अधिकार सिर्फ़ पश्चिमी देशों को या उन जैसी सोच  रखने वाले  अन्य लोगों को तो है, लेकिन  नयी खोज व शोध के नाम पर जो कुछ भी ( चाहे वो कचरा ही क्यूँ न हो ) पश्चिम से आता है, उसे हम बिना किसी संदेह के, बिना  skeptical  हुए सर-माथे से लगा लेते हैं |

और साथ ही स्थानीय शोध-कार्य को सिरे से ही नकारने क़ी पूरी कोशिश करते हैं, उसे अपनी बात वैज्ञानिक आधार पर प्रमाणित करने की भी सुविधा देने में ख़ासी कंजूसी  बरतते  हैं |

n  संक्रमण के लिए एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल ज़रूरी है वर्ना यह लाइफ threatening हो सकता है. ऐसी स्थिति में किसी को यह सलाह नहीं दी जा सकती कि वह कोई विकल्प का सहारा ले. 

è  और जहाँ एंटीबायोटिक्स भी किसी संक्रमण को काबू करने में आंशिक या पूर्णतः नाकामयाब रहे तो ? तो  क्या वहाँ भी " किसी को यह सलाह नहीं दी जा सकती कि वह कोई विकल्प का सहारा ले.” ...???

ऐसे एक नहीं, हज़ारों उदहारण दिए जा सकते हैं, जहाँ एंटीबायोटिक्स कई एक संक्रमरणों पर पूरी तरह से नाकामयाब रही है अथवा उसके कारण हुईं प्रतिक्रियाएं व पार्श्व प्रभावों ने मरीज़ के स्वास्थ्य पर बुरी तरह से नकारात्मक असर डाला है |

तो क्या ऐसी अवस्था में भी हमें ऐलोपथी या उसकी तथाकथित जीवन-रक्षक ( अथवा स्वास्थ्य - भक्षक...???) दवाओं की अंध-भक्ति करनी चाहिए...?

n  लाईफ स्टाईल मोडिफिकेशन तो सबके लिए ज़रूरी है . लेकिन यह बस स्वस्थ रहने में सहायक होता है , उपचार नहीं.”

è  बज़ा फ़रमाया..!

n  बताये गए अधिकतर रोगों को कंट्रोल तो किया जा सकता है लेकिन उल्मूलन नहीं.

è  सिर्फ़ ऐलोपथिक नज़रिए  से.. और ऐलोपथिक नज़रिया चिकित्सा जगत में न पहला है और न ही अंतिम... हाँ लोगों को इसके सम्मोहन  जाल  तथा ' एकमात्र जीवन रक्षक औषधि ' वाले दृष्टिकोण से बाहर आकर भी देखने क़ी ज़रुरत है |


n  कुछ रोग सेल्फ लिमिटिंग होते हैं , कुछ सायकोलोजिकल , कुछ खाली मन का वहम .

अंत में यही कह सकता हूँ --गुड़ ना दे , गुड़ जैसी बात तो करे . लेकिन अफ़सोस स्वास्थ्य के मामले में यह कहावत फिट नहीं बैठती.


è  रोग की इन तीनों ही अवस्थाओं में " --गुड़ ना दे , गुड़ जैसी बात तो करे.." वाली कहावत बहुत  हद तक कारगर सिद्ध हुयी है |

हाँ, स्वास्थ्य ( या बीमारियों के..? ) के बाकी मामलों में सिर्फ़ गुड़ वाली बात से काम नहीं  चल सकतासमुचित दवाओं का सेवन तथा पथ्य एवं उचित परिचर्या परमावश्यक हो जाती  है |

n  पता नहीं ये पोस्ट आपने क्यों लिखी ! “

è  लेख-लिखी को वीरुभाई जाने..!!!

n  कृपया अन्यथा न लें . न ही शेखर जी से कोई शिकायत है.”

è  अंत में, आप से भी ( और आप सब विज्ञ जनों से से भी )  गुज़ारिश है कि मेरे प्रतिवेदन को कृपया अन्यथा न लें  और न ही इसे किसी भी अर्थ मेंमेरी तरफ से किसी के भी प्रति, किसी भी प्रकार की शिकायत समझा जाए...!


शेखर जेमिनी के प्रणाम 


www.hamarivani.com