Thursday, May 31, 2012

चिकित्सा में विकल्प की आधारभूत आवश्यकता : भाग - १



चिकित्सा में विकल्प की आधारभूत आवश्यकता : 
 भाग -  

भारत के जन-मानस में व्याप्त दर्शन कहता है -
पहला सुख निरोगी काया '

इसी फ़लसफ़े  के मातहत भारत का आयुर्वेद और अष्टांग योग सम्पूर्ण विश्व में अपनी प्रभुता व प्रभाव बढ़ाता जा रहा है - सिवाय हमारी शासन व्यवस्था के |

अंग्रेज़ियत का भूत हमारे देश के आकाओं इस क़दर हावी है कि देश की तमाम खास-ओ-आम नीतियाँ - हमारी संस्कृति, परंपरा अथवा जीवनशैली, और सामान्य जन की आर्थिक, दैहिक एवं भौगोलिक स्थिति-परिस्थितियों को ताक पे रख कर बनाई जाती हैं | ना ही ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे नीतिकार सामान्यजन की दैनंदिन ज़रूरतों की बाबत अंशभर भी संवेदनशील हैं |

यही कारण है जिससे आज आधुनिक चिकित्सा पद्धति ( ऐलोपैथी ) के चिकित्सक देश में प्रचलित अन्य विभिन्न लोक-चिकित्सा पद्धतियों को अपना शत्रु मानने लगे हैं |

प्रश्न यह नहीं है कि कौन सी चिकित्सा पद्धति सही है ? प्रश्न यह है कि कौन सी चिकित्सा पद्धति आम आदमी तक सहज-सुलभ हो सकती है ?

आधुनिक चिकित्सा पद्धति अथवा एलोपैथी को सरकार भले ही आम आदमी की पद्धति कहे, लेकिन इस पद्धति के अंतर्गत चिकित्सकीय सेवाओं पर आने वाले खर्चों की कोई भी मिसाल देना श्रेयस्कर नहीं लगता क्योंकि सभी भुक्तभोगी हैं यह पद्धति तो आज श्रेणी विशेष की पद्धति बनती जा रही है ऐसे में किसी भी एक पद्धति के के भरोसे सवा -करोड़ लोगों को स्वस्थ नहीं रखा जा सकता तबजबकि  हमारा देश बड़ा होते हुए भी आर्थिक दृष्टि से पश्चिमी देशों की तरह संपन्न भी नहीं है |

आज वैकल्पिक चिकित्सा का क्षेत्र भी बहुत व्यापक और विज्ञानोंमुख होता जा तरह है देशज स्तर भी अनेक प्रकार के शोध - प्रयोग बेहद सफ़लसुफल तथा परिणामकारी साबित हुए हैं |  लेकिन यहाँहमारे देश में उनको न सिर्फ हेय दृष्टि से देखा जाता है बल्कि उन्हें झोला छाप डॉक्टर की उपाधि देकर उनका माखौल उड़ाया जाता है उनका दोष केवल इतना है की न तो उनके पास सरकारी मान्यता प्राप्त पद्धति की कोई सनद है  और न ही अपनी पद्धति के अंतर्गत रहते हुएसरकार की घोर पक्षपाती नीतियों के कारणअपनी पद्धति के लिए किसी भी प्रकार की सरकारी मान्यता को प्राप्त करने की संभावना ...|

कहने को तो हमारे देश में आयुर्वेद चिकित्सा सदियों से प्रचलन में हैपरन्तु सरकार व सरकार में बैठे नीति-निर्धारक इस बेश्कीमती चिकित्सा पद्धति के प्रति पूरी तरह से उदासीन दिखाई पड़ते हैं | वे भारतीय रसोई में सहज उपलब्ध सामग्री और हज़ारों वर्षों   के अर्जित जड़ी-बूटियों के ज्ञान के उपयोग की पूर्णतः उपेक्षा करते हैं | जब सरकार का आयुर्वेद के ही विकास के प्रति इतना उदासीन रवैया है तो अन्य सैकड़ों लोक चिकित्सा पद्धतियों की शिक्षाशोधप्रशिक्षण तथा व्यावसायीकरण की व्यवस्था की अपेक्षा कौन और किससे करे...?

क्या कारण है,  वो कौन सी बुनियादी बात है कि हमारी सरकारें आधुनिक चिकित्सा को इतना बढ़ावा देती आयी हैं और निरंतर  दे रही हैं..?

कारण बड़ा सीधा सा है जो  एक आम आदमी के भी समझ में आ जाता है - हमारे देश में इलाज पर होने वाला औसत खर्च आम आदमी के मासिक बजट का २० से ३५ प्रतिशत तक आ जाता हैइसी के चलते देश में चिकित्सा आज तीन सबसे बड़े उद्योगों में से एक बन गयी है  

शिक्षा,  दवा - खरीद व मूल्य, जाँच ( Pathological  Tests ), शल्य-चिकित्सा ( Surgical Operation ), ( जो अधिकांशतः सर्वथा अनावश्यक  तथा मुसीबत के मारे  मरीजों पर चिकित्सकों द्वारा अपने स्वार्थपूर्ति के लिए आरोपित की जाती है ),  इत्यादि सभी के रास्ते कुबेर के घर जाकर ख़त्म होते हैं | और स्वयं कुबेर, सरकार के चरणों में भेंट-पुष्प चढ़ाने अपने हाथ बांध कर खड़ा रहता है | यहाँ तक कि शोध ( Research  & Development  ) पर भी चिकित्सा के क्षेत्र में ९० प्रतिशत से अधिक बोगस खर्चा किया जाता है |

इतना पैसा, और अकल्पनीय मुनाफ़ा... शायद ही किसी अन्य उद्योग में उत्पादन मूल्य तथा विक्रय मूल्य में हजारों गुने का अंतर मिलता हो...!

अमेरिका एक स्वाइन फ्लू '  प्रयोगशाला में पैदा करके हमारे यहाँ भेज देता है और हमारी सरकार पूर्णतः अदूरदर्शिता का प्रदर्शन करते हुए उसके इलाज के लिए बेहद मँहगी दवाओं का ज़खीरा खरीद कर अमेरिका को मंदी  से उबार लेती है इतनी भारी मात्रा में दवाओं की  खरीद... देश के प्रत्येक  नागरिक का ६ - ७ बार इलाज किया जा सके... ये कैसी  लोक-सेवा है...?

दूसरी तरफ़ देश की दल-दल में लाखों प्रतिभा संपन्न कमल खिले हुए हैं और न सिर्फ स्वाइन फ्लूबर्ड फ्लू आदि जैसी उत्पादित  आफतों को बल्कि तथाकथित असाध्य बीमारियों को भी समूल नष्ट का माद्दा रखते हैं | 

लेकिन हमारी सरकार न गूंगी  है,  न अंधी है और न ही बहरी है |  वोऔर उसमें बैठे हमारे देश के नीति-निर्धारक आका सिर्फ अपने हित को देखते हैंअपने हित की सुनते हैं और सिर्फ अपने हित की बाबत बोलते हैं...|

क्रमशः

1 comment:

मनोज कुमार said...

आपने बुनियादी सवाल पर विवेचना की है। आपने सही कहा है कि प्रश्न यह नहीं है कि कौन सी चिकित्सा पद्धति सही है ? प्रश्न यह है कि कौन सी चिकित्सा पद्धति आम आदमी तक सहज-सुलभ हो सकती है ? हमें इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढ़ने के लिए अधिक माथा पच्ची नहीं करनी है। जवाब भी आपने दे ही दिए हैं।