Wednesday, May 2, 2012

" ईश्वर खो गया है " - टिप्पणियों पर प्रतिवेदन..!


       ब्लॉग की  तकनीकी जानकारी से अभी पूरी तरह से 
      वाकिफ़ नहीं हुआ हूँ अतः सभी टिप्पणियों पर 
      प्रतिवेदन को पोस्ट के रूप में पेश कर रहा हूँ |  
 क्षमा प्रार्थी रहूँगा यदि ब्लॉग की संस्कृति अथवा उच्च परम्परा में मेरे इस कृत्य
 के कारण अनजाने ही मूल्य-ह्रास हुआ हो |
ईश्‍वर की अवधारणा ही संदेहास्‍पद है

è      जब तक ईश्वर मात्र एक अवधारणा रहेगा तब 
तक वो संदेह की सीमा से बाहर नहीं जा सकता

   हाँजब वो किसी का अनुभव बन जाता  है 
   तो उसके  लिए ईश्वर प्रमाणित हो जाता है |
Kailash Sharma ने कहा
ईश्वर का होना या न होना केवल हमारे विश्वास पर निर्भर है |

è      विश्वास सामूहिक चेतना  से उत्पन्न एक ऐसी 
   मनो-दशा है जिसमें तर्क तथा कार्य-कारण की 
   बहुत कम गुंजाईश रहती है 

   अतः  ईश्वर के होने या न होने की  निर्भरता मात्र 
   विश्वास से तय करेंगे तो दायरा बहुत सीमित हो 
   जायेगा और उसके जानने-समझने के रास्ते और 
   भी अधिक संकीर्ण...!

विश्वास सही मार्ग नहीं है ईश्वर के अनुभव का...
sushma 'आहुति' ने कहा
ये हमारा विश्वास ही तय करता है...सार्थक अभिवक्ति.....
28 अप्रैल 2012 8:12 pm

è      विश्वास से तय किया गया ईश्वर महज एक विचार
   अवधारणाअथवा बाहर से प्राप्त हुयी एक सूचना या 
   एक काल्पनिक सम्प्रेषण तो हो सकता है लेकिन उसमें
   अनुभव की प्रामाणिकतागरिमा और अभिव्यक्ति के 
   सहज सौंदर्य का नितांत अभाव होगा...!
जिन जिन पर शक हैसबसे पूछताछ हो।

è      अगर शक करना ही है तो अपने से शुरू करके 
   अपने पर ही ख़त्म करें तो मंज़िल दूर नहीं है |
गंभीर आलेख ।
हास्य की गुंजाइस कहाँ ।
उसका जहां-
जाए चाहे जहां ।।

è        हास्य एक गंभीर  मामला है...
 कहीं सुना था " मज़ाक को भी मज़ाक में मत लो "

 उसका जहाँ..अरे भईवो ही तो 'जहाँहै 
 फिर जायेगा कहाँ...?
मनोज कुमार ने कहा
यह एक आस्था है। और वह तो हमारे भीतर ही थाकभी तलाशने की हम कोशिश ही नहीं करते।

è         जो आस्था संक्रामक विश्वास से पैदा होती है 
    वो माया का ही अंग है | जो आस्था गहरे 
    अनुभव से आती  है, वहाँ संदेह भी नहीं 
    टिक पाता |

    आस्था अंध-विश्वास नहीं है वरन आभ्यंतरिक 
    प्रज्ञा की पराकाष्ठा  है | इसी  से वो समस्त 
    बौद्धिक क्रिया- कलापों पर भारी पड़ती है | 
    आस्था अन्तश्चेतना की बड़ी पवित्र, महकती 
    हुयी सौन्दर्यपूर्ण अभिव्यक्ति है |

    सही कहा " वो तो हमारे भीतर ही था 
    / है, कभी  तलाशा ही नहीं..."

पर भीतर तो इतना कचरा भी तो भरा 
पड़ा है, पहले उसे तलाशें या अपने 
भीतर के इस कचरे को साफ़  करें...

मेरे देखे तो पहले कचरा साफ़ करना 
अधिक व्यावहारिक लगता है... कौन  
जाने  मन के दर्पण के साफ़ होने के 
बाद उसका प्रतिबिम्ब ही दिख जाये..!



ईश्वर बस एक विश्वास .... ईश्वर का अलग कोई वजूद नहीं ... हर इंसान में ईश्वर .... लेकिन फिर भी नहीं मिलता ...

è         ईश्वर का अलग से कोई वजूद नहीं है... वजूद होते 
    ही उसकी ईश्वरीयता (Godliness ) या कहें कि उसके 
    ईश्वरीय तत्त्व में कुछ कमी  हो जाती है जैसा कि 
    हमारे पौराणिक अवतारों की धारणा के साथ हुआ |

 हर इन्सान में ईश्वर... ढूँढने से भी नहीं मिलेगा 
 पहले अपने भीतर की ईश्वरीयता   की उपलब्धि करें 
 तो संभव है कि अन्यों में भी वो दिखाई दे जाये...!
जिस पल हम यह कहते हैं ईश्वर नहीं है उसी पल हम ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते हैं। यदि वह नहीं होता तो यह वाक्य ही नहीं बनता कि ईश्वर नहीं है।

è         किसी विद्वान् नेशायद नीत्शे ने कहा था कि
    " ईश्वर है, क्यों कि उसमें विश्वास करना 
    असंभव है |"

 ( विश्वास एक तथ्यहीनअप्रमाणिक  सामाजिक 
 अथवा समूहगत चेतना द्वारा प्रभावित तथा 
 अनुभवहीन अवधारणा है | )
Arvind Mishra ने कहा
आज तो दर्शन ,आध्यात्म और चिंतन सब कुछ को साध लिया है एक साथ भाई आपने ....

è         एकै साधे सब सधैसब साधे सब जाये...!

          आपका बहुत आभार ...( ज़र्रा नवाज़ी का...)

    एक अपनी बात भी कह लूँ ... अल्लामा इक़बाल 
    साहेब का एक शे'र है |

          अर्ज़ किया है - 

   " बाग़े-बहिश्त से मुझे हुक्म-ए-सफ़र दिया था क्यों,
     कार-ए-जहाँ दराज़ हैअब मेरा इन्तिज़ार कर  |"

Arvind Mishra ने कहा
ईश्वर तो मनुष्य खुद है जिसने खुद अपने ही एक काल्पनिक विराट रूप में ईश्वरत्व को आरोपित कर दिया ....

è यह वैज्ञानिक की भाषा है दार्शनिक की नहीं...!

दर्शन में कल्पना के लिए कोई स्थान नहीं होताजब कि विज्ञान की तो आधारशिला ही परिकल्पना ( hypothesis  ) पर  खड़ी होती है...!

विज्ञान पहले संभावना में कल्पना करता है फिर उसे एक व्यवस्थात्मक व तथ्यात्मक परिकल्पना देता है तथा बाद में उसके लिए आवश्यक प्रमाण जुटाता है |

दर्शन स्वयं में ही स्वतःप्रमाण और तथ्यपरक होता है यद्यपि यह सही है कि, दर्शन के अनुभव की अभिव्यक्ति के लिए कल्पनाशीलता की कही न कहीं आवश्यकता पड़ जाती है |

मनुष्य में मौजूद ईश्वरीयता की उपलब्धि - मनुष्य केमनुष्यत्व केमानवीयता के विकास का चरमोत्कर्ष है |

ईश्वरीयता मनुष्य की आत्यान्तिक संभावना ( Potential possibility ) के साथ एक वैयक्तिक वास्तविकता है लेकिन लोकतान्त्रिक अथवा वैज्ञानिक नियम  नहीं ... ! न ही  किसी आरोपित विराट की कल्पना ...!
अपनी-अपनी आस्था!!!
आपकी यह प्रविष्टि कल दिनांक 30-04-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-865 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

è जी हुज़ूरआस्था नितांत वैयक्तिकनिजी और पूर्णतः एकांगी अनुभव वाली होती है इसी से वो सामूहिक होते हुए भी व्यक्तिपरक बनी रहती है |

इसके विपरीतसामूहिक  चेतना से प्रभावित, मान्यता आधारित आस्था न प्रमाणिक होती है और न ही उसमें वैज्ञानिकता की तथ्यात्मक स्पष्टता होती है |

   चर्चामंचीय सम्मान के लिए आभार...!
udaya veer singh ने कहा
इश्वर खोता नहीं ,संजोता है ,आत्म निरीक्षण के आभाव में अपना वजूद कहीं और तलाश का कारण ही निर्णय व विवेक को प्रभावित करता है / इश्वर है इसीलिए उसके न होने का प्रमाण पेश करते हैं ,खो गया है तो पाना भी होगा ...... सुन्दर प्रकरण ...


è इश्वर खोता नहीं , संजोता है ... 

अब इसके बाद क्या कहूँ...आपने तो गागर में सागर भर दिया ... बहुत खूब...!
Dr. shyam gupta ने कहा
---हम कौन कहां से आये हैं,इस प्रश्न में मनुष्य खोगया,और ईश्वर का जन्म होगया....

--- 
अवधारणा संदेहास्पद हो सकती है पर नकारात्मक नहीं..अन्यथा इतने लोग इस पर बहस नहीं कर रहे होते.....यह अप्रत्यक्ष प्रमाण-दर्शन है...इसी बात पर...

---
एक आयोग बिठा देते हैं...

è             आयोग बिठाने से पहले ये साबित करना 
     होगा कि ईश्वर के साथ लम्बे समय से 
     घोटाला चल रहा है... कौन लोग 
     जिम्मेवार हैंनफा - नुक्सान भी एक 
     मुद्दा हो सकता है |

     बहस का मज़ा तो तभी है जब सभी को 
     परिणाम की जानकारी पहले से हो...!
         जांच आयोग तो प्रत्यक्ष प्रमाण - दर्शन 
     की धज्जियाँ उड़ा के रख देते हैं... फिर 
     अप्रत्यक्ष प्रमाण - दर्शन की कौन कहे...!

Blogger ZEAL said...
नास्तिकों का ईश्वर अक्सर खो जाता है। आस्तिकों का ईश्वर तो सर्वव्यापी है । आँख बंद करते ही स्मरण मात्र से ही हाजिर हो जाता है।
April 30, 2012 5:02 PM
ईश्वर में विश्वास करने वाले सभी नास्तिक हैं आस्थाविश्वास नहीं है... बल्कि अनुभवजन्य ज्ञान से उत्पन्न गहरी समझ हैआतंरिक प्रज्ञा हैअन्तश्चेतना है और इसी आस्था की व्यावहारिक अभिव्यक्ति आस्तिक है |
जो आँख बंद करते ही स्मरण मात्र से हाज़िर हो जाये वो हमारी कल्पना की ही एक प्रतिरूप है, उसी का ही त्रि-आयामी प्रक्षेपण है |
ईश्वर हाज़िर नहीं होता...न ही वो खोता है और जो खोया ही नहीं है उसे पाओगे कैसे..आँखें बंद करके नहींवरन पूरी तरह से खोल कर ही ...|
हाँउसे अनावृत किया जा सकता हैभीतर के कचरे को साफ़ करके...|
ध्यान के गहरे क्षणों में कचरा उसी प्रकार ग़ायब हो जाता है जैसे प्रकाश की उपस्थिति में अँधेरा...|
और तभी आप बहुत कुछ से " कुछ न "  हो जाते हैं... खो जाते हैस्वयं की अस्मिता भी नहीं बचती... जो बचती है सो आपकी आपके प्रति " बेखबरी " और महज  ईश्वरीयता ...|
तोईश्वर तो कभी खोया ही नहीं जा सकता... हाँखुद को पूरी तरह खोकर उसकी अनुभूति की जा सकती है...|

सादर
शेखर जेमिनी


       

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